खुले अलाव पकाई घाटी
भादनी जी का पूरा परिचय यहाँ पर देखें।
प्रकाशकः धरती प्रकाशन, गंगा शहर, बीकानेर (राज0)
प्रथम संस्करणः 1981 मूल्यः 25/-
ई-प्रकाशक:
ई-हिन्दी साहित्य प्रकाशन
एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी,
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संपर्क : हरीश भादानी, छबीली घाटी, बीकानेर दूरभाष : 2530998
[ Script Code: Khule Alav Pakaee Ghati (Poem) By Harish Bhadani ]
1. ड्योढ़ी ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए कुनमुनते ताम्बे की सुइयां खुभ-खुभ आंख उघाड़े रात ठरी मटकी उलटा कर ठठरी देह पखारे बिना नाप के सिये तकाजे सारा घर पहनाए ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए सांसों की पंखी झलवाए रूठी हुई अंगीठी मनवा पिघल झरे आटे में पतली कर दे पीठी सिसकी सीटी भरे टिफिन में बैरागी-सी जाए ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए पहिये पांव उठाये सड़कें होड़ लगाती भागे ठण्डे दो-मालों चढ़ जाने रखे नसैनी आगे दोराहों-चौराहों मिलना टकरा कर अलगाए ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए सूरज रख जाए पिंजरे में जीवट के कारीगर घड़ा-बुना सब बांध धूप में ले जाए बाजीगर तन के ठेले पर राशन की थकन उठा कर लाए ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए 2. कोलाहल के आंगन दिन ढलते-ढलते कोलाहल के आंगन सन्नाटा रख गई हवा दिन ढलते-ढलते दो छते कंगूरे पर दूध का कटोरा था धुंधवाती चिमनी में उलटा गई हवा दिन ढलते-ढलते घर लौटे लोहे से बतियाते प्रश्नों के कारीगर आतुरती ड्योढ़ी पर सांकल जड़ गई हवा दिन ढलते-ढलते कुंदनिया दुनिया से झीलती हक़ीक़त की बड़ी-बड़ी आंखों को अंसुवा गई हवा दिन ढलते-ढलते हरफ़ सब रसोई में भीड़ किए ताप रहे क्षण के क्षण चूल्हे में अगिया गई हवा दिन ढलते-ढलते 3. सुई सुबह उधेड़े शाम उधेड़े बजती हुई सुई सीलन और धुएं के खेतों दिन भर रूई चुनें सूजी हुई आंख के सपने रातों सूत बुनें आंगन के उठने से पहले रचदे एक कमीज रसोई एक तलाश पहन कर भागे किरणें छुई-मुई बजती हुई सुई धरती भर कर चढ़े तगारी बांस-बांस आकाश फरनस को अगियाया रखती सांसें दे दे घास सूरज की साखी में बंटते अंगुली जितने आज और कल बोले कोई उम्र अगर तो तीबे नई सुई बजती हुई सुई 4. धूप सड़क की धूप सड़क की नहीं सहेली जब कोरे मेड़ी ही कोरे छत पसरी पसवाड़े फोरे छ्जवालों से छींटे मल-मल पहन सजे शौकीन हवेली काच खिड़कियों से बतियाये गोरे आंगन पर इठलाये आहट सुन कर ही जा भागे जंगले पर बेहया अकेली आंख रंग चेहरे उजलाये हरियल दरी हुई बिछ जाए छुए न संवलाई माटी की खाली सी पारात तपेली सड़क पांव का रोजनामचा मंडे उमर का सारा खरचा सुख के नावें जुगों दुखों की बिगत बांचना लगे पहेली धूप सड़क की नहीं सहेली 5. सांसें शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएं कफ़न ओस का फाड़ बीच से दरके हुए क्षितिज उड़ जाएं छलकी सोनलिया कठरी से आंखों के घड़िये भर लाएं चेहरों पर ठर गई रात की राख पोंछती जाएं शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएं पथरीले बरगद के साये घास बांस के आकाशों पर घात लगाए छुपा अहेरी बुलबुल जैसे विश्वासों पर पगडंडी पर पहिये कस कर सड़कों बिछती जाएं शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएं सर पर बांध धुएं की टोपी फरनस में कोयले हंसाएं टीन काच से तपी धूप पर भीगी भीगी देह छवाएं पानी आगुन आगुन पानी तन-तन बहती जाएं शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएं लोहे के बांवलिये कांटे जितने बिखरें रोज बुहारें मन में बहुरूपी बीहड़ के एक-एक कर अक्स उतारें खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर तलपट लिखती जाएं शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएं हाथ झूलती हुई रसोई बाजारों के फेरे देती भावों की बिणाजारिन तकड़ी जेबें ले पुड़िया दे देती सुबह-शाम खाली बांबी में जीवट भरती जाएं शहरीले जंगल में सांसें हलचल रचती जाएं 6. मन सुगना टिक टिक बजती हुई घड़ी से क्या बोले मन सुगना चाबी भर-भर दीवारों पर टांगें हाथ पराये छोटी-बड़ी सुई के पांवों गिनती गिनती जाए गांठ लगा कर कमतरियों का बांधे सोना जगना क्या बोले मन सुगना पहले स्याही से उजलाई धूप रखे सिरहाने फिर खबरों भटके खोजी को खीजे भेज नहाने थाली आगे पहियों वाली नौ की खुंटी रखना क्या बोले मन सुगना दस की सीढ़ी चढ़ दफ़्तर में लिखे रजिस्टर हाजर कागज के जंगल में बैठी आंखें चुगती आखर एके के कहने पर होता भुजिया मूड़ी चखना क्या बोले मन सुगना साहब सूरज घिस चिटखाये दांतों की फुलझड़ियां झुलसी पोरों टपटप टीपे आदेशों की थड़ियां खींच पांच से मुचा हुआ दिन झुकी कमर ले उठना क्या बोले मन सुगना रुके न देखे घड़ी कभी तन पर लदती पीड़ा दिन कुरसी पर रात खाट पर कुतरे भय की कीड़ा घर से सड़क चले पुरजे की किसने की रचना क्या बोले मन सुगना टिक टिक बजती हुई घड़ी से 7. रचना है जिन्हें अपने समय का आज रचना है अकेली फैलती आंखें दुखाती चाह को सूने दुमाले से सुबह आंजे उतरना है जिन्हें अपने समय का आज रचना है आंगने हंसती हक़ीक़त से तक़ाजों का टिफिन लेकर सवालों को मशीनों के बियाबां से गुजरना है जिन्हें अपने समय का आज रचना है तगारी भर जमी आकाश रखते हाथ को होकर कलमची गणित के उपनिषद की हर लिखावट को बदलना है जिन्हें अपने समय का आज रचना है आदमी से आदमी की पहचान खाएं लोग आदमी से आदमी को तोड़ने का शौक साजें लोग तोड़ी गई हर हर इकाई को धड़कता एक सम्बोधन ग़ज़लना है जिन्हें अपने समय का आज रचना है ठहर जाएं स्वप्न भोगें वे जिन्हें इतिहास जीना है कस चलें संकल्प में छैनी जिन्हें अपने समय का आज रचना है 8. रेत है रेत इसे मत छेड़ पसर जाएगी रेत है रेत बिफर जाएगी कुछ नहीं प्यास का समंदर है ज़िन्दगी पांव-पांव जाएगी धूप उफने है इस कलेजे पर हाथ मत डाल ये जलाएगी इसने निगले हैं कई लस्कर ये कई और निगल जाएगी न छलावे दिखा तू पानी के जमीं आकाश तोड़ लाएगी उठी गांवों से ये ख़म खाकर एक आंधी सी शहर जाएगी आंख की किरकिरी नहीं है ये झांक लो झील नज़र आएगी सुबह बीजी है लड़के मौसम से सींच कर सांस दिन उगाएगी कांच अब क्या हरीश मांजे है रोशनी रेत में नहाएगी इसे मत छेड़ पसर जाएगी रेत है रेत बिफर जाएगी 9. जंगल सुलगाए हैं आए जब चौराहे आग़ाज कहाए हैं लम्हात चले जितने परवाज़ कहाए हैं हद तोड़ अंधेरे जब आंखों तक धंस आए जीने के इरादों ने जंगल सुलगाए हैं जिनकों दी अगुआई चढ़ गए कलेजे पर लोगों ने ग़रेवां से वे लोग उठाए हैं बंदूक ने बंद किया जब-जब भी जुबानों को जज्वात ने हरफ़ों के सरबाज उठाए हैं गुम्बद की खिड़की से आदमी नहीं दिखता पाताल उलीचे हैं ये शहर बनाए हैं जब राज चला केवल कुछ खास घरानों का कागज के इशारे से दरबार ढहाए हैं मेहनत खा सपने खा चिमनियां धुआं थूकें तन पर बीमारी के पैबंद लगाए हैं दानिशमंदो बोलो ये दौर अभी कितना अपने ही धीरज से हर सांस अघाए हैं न हरीश करे लेकिन अब ये तो करेंगे ही झुलसे हुए लोगों ने अंदाज दिखाए हैं आए जब चौराहे आग़ाज कहाए हैं लम्हात चले जितने परवाज़ कहलाए हैं 10. बाकी अभी बारी उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पै तारी यारो कोई दुनियां न बने रंगे-लहू के ख्याल गोया रेत ही पर तस्वीर उतारी यारो देखा ही किए झील वो समंदर वो पहाड़ अपनी हर आंख सियाही ने बुहारी यारो जहां सड़क गली आंगन जैसे बाजार चले न चले अपनी न चले यहां असआरी यारो रहबरों तक गई बो तलाश रहे साथ सफ़र उसकी आबरू हर बार उतारी यारो हां निढाल तो हैं पर कोई चलना तो कहे मन के पांवों की बाकी अभी बारी यारो उठके डूबे है कहीं अपनी आवाज यहां एक आग़ाज से ही सिलसिला जारी यारो अब जो बदलो तो कहीं हो गुनहगार हरीश वही रंगत वे ही दौर वही यारी यारो उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पै तारी यारो 11. क्या किया जाए बता फिर क्या किया जाए सड़क फुटपाथ हो जाए गली की बांह मिल जाए सफ़र को क्या कहा जाए बता फिर क्या किया जाए नज़र दूरी बचा जाए लिखावट को मिटा जाए क्या इरादे को कहा जाए बता फिर क्या किया जाए स्वरों से छंद अलगाएं गले में मौन भर जाएं ग़ज़ल को क्या कहा जाए बता फिर क्या किया जाए उजाला स्याह हो जाए समंदर बर्फ़ हो जाए कहां क्या-क्या बदल जाए बता फिर क्या किया जाए आदमी चेहरे पहन आए लहू का रंग उतर जाए किसे क्या-क्या कहा जाए बता फिर क्या किया जाए समय व्याकरण समझाए हमें अ आ नहीं आए ज़िन्दगी को क्या कहा जाए बता फिर क्या किया जाए 12. चाहों की थाली लोहे की नगरी में भैया लोहे की नगरी में फेरी वाला सायरन हूंकता दस्तक देता जड़े किवाड़ों नींद झाड़ उठ जाती बस्ती कस पांवों के पेंच बिछाती जाती सड़कें फाटक से परवाना लेकर नाम टीपता अपना नम्बर उठा सलाम देखते ही पहिये चल जाते गा-गा बुनते सूत सांस के तकुए तान बिछाएं आंखें छापें तहें संवारे जाएं थपिये इतने पर भी पुरजे जैसा जिये आदमी लोहे की नगरी में भैया लोहे की नगरी में पातालों की पर्त उघाड़े उझक-उझक कर कसी कुदाली भरे फावड़ा हुआ निवाला सुरसा नींवें थप थप थाप सुलाएं तोला-मासा चूना-बजरी रसमस-रसमस गुंथ-गुंथ दोनों हाथ भरें माथे पर रख लें छैनी बैठी लिखे चिट्ठियां और तगारी बांसों की सीढ़ी थामे ईंटें रख आए आसमान पर और धूप को चिढ़ा चिढ़ा कर रंगती जाये कोरे चेहरे ताम्बे के तन वाली कूची पर हाड़-मांस की ऊंचाई तो घिसती ही रहती है लोहे की नगरी में भैया लोहे की नगरी में धुआं भाग जाता चेबें भर समय टीप कर खाली टिफिन निकलता बाहर संकेतों का एक कथानक रच जाता है आज बदल देने का मौसम ओढ़े सड़क सरक जाती गलियों में घूम रही होती ड्योढ़ी की धुरी थाम कर प्रश्नों की छोटी-सी दुनियां खुली हथेली पर दुख गिन देते लौटे कारीगर जमती हुई नसों पर फोहे-सा ठर जाता भीगा आंचल आंगन टांगे खूंटी पर मजबूरी और रसोई तुतलाता कोलाहल आंज परोसे कड़छी बजा-बजा चाहों की थाली लोहे की नगरी में भैया लोहे की नगरी में 13. गोरधन काल का हुआ इशारा लोग हो गए गोरधन हद कोई जब माने नहीं अहम आंख तरेरे बरसे बिना फहम तब बांसुरी बजे बंध जाय हथेली ले पहाड़ का छाता जय-जय गोरधन ! हठ का ईशर जब चाहे पूजा एक देवता और नहीं दूजा तब सौ हाथ उठे सड़कों पर रख दे मंदिर का सिंहासन जय-जय गोरधन ! सेवक राजा रोज रंगे चोले भाव-ताव कर राज धरम तोले तब सौ हाथ उठे उठ थरपे गणपत गणपत बोले गोरधन जय-जय गोरधन ! 1. याद नहीं है चले कहां से गए कहां तक याद नहीं है आ बैठा छत ले सारंगी बज-बजता मन सुगना बोला उतरी दिशा लिए आंगन में सिया हुआ किरणों का चोला पहन लिया था या पहनाया याद नहीं है..... झुल-झुल सीढ़ी ने हाथों से पांवों नीचे सड़क बिछाई दूध झरी बाछों ने खिल-खिल थामी बांह करी अगुवाई रेत रची कब हुई बिवाई याद नहीं है..... रासें खींच रोशनी संवटी पीठ दिये रथ भागे घोड़े उग आए आंखों के आगे मटियल स्याह धुओं के धोरे सूरज लाया या खुद पहुंचे याद नहीं है..... रिस-रिस झर-झर ठर-ठर गुमसुम झील हो गया है घाटी में हलचल सी बस्ती में केवल एक अकेलापन पांती में दिया गया या लिया शोर से याद नहीं है..... चले कहां से गए कहां तक याद नहीं है..... 2. नहाया है मन रेत में नहाया है आंच नीचे से आग ऊपर से वो धुआंए कभी झलमलाती जगे वो पिघलती रहे बुदबुदाती बहे इन तटों पर कभी धार के बीच में डूब-डूब तिर आया है मन रेत में नहाया है घास सपनों सी बेल अपनों सी सांस के सूत में सात स्वर गूंथ कर भैरवी में कभी साध केदारा गूंगी घाटी में सूने धोरों पर एक आसन बिछाया है मन रेत में नहाया है आंधियां कांख में आसमां आंख में धूप की पगरखी ताम्बई अंगरखी होठ आखर रचे शोर जैसा मचे देख हिरनी लजी साथ चलने सजी इस दूर तक निभाया है मन रेत में नहाया है 3. कबूतर अकेला किस दिशा को डड़े अब कबूतर अकेला ! बांग भरती हुई जब मुंडेरें उठीं फड़फड़ा गई पांखें सूत रोशनी का ले सुई सांस की पिरोती गई आंखें बुन गए आकाश में कुछ धुएं आ अड़े किस दिशा को उड़े..... पांत से टूट कर छांह की माप के कई रास्ते रच गए छोर साधे हुए बीच गहरा गई खाइयों में मुच गए देह होकर जुड़े वे सब जुदा हो खड़े किस दिशा को उड़े..... उड़ना पंछी को घेरे पिंजरे में मौसम का बहेलिया साखी सूरज का झुरियाया चेहरा रात के अंधेर दिया कुनमुनाई चोंच को बींध नेजे गड़े किस दिशा को उड़े अब कबूतर अकेला ! 4. रचते रहने की मौसम ने रचते रहने की ऐसी हमें पढ़ाई पाटी रखी मिली पथरीले आंगन माटी भरी तगारी, उजली-उजली धूप रसमसा आंखें सींच मठारी, एक सिरे से एक छोर तक पोरंे लीक बनाई घाटी मौसम ने रचते रहने की ऐसी हमें पढ़ाई पाटी आसपास के गीले बूझे बीचोबीच बिछाये, सूखी हुई अरणियां उपले जंगल से चुग लाए, सांसों के चकमक रगड़ा कर खुले अलाव पकाई घाटी मौसम ने रचते रहने की ऐसी हमें पढ़ाई पाटी मोड़ ढलानों चौके जाए आखर मन का चलवा, अपने हाथों से थकने की कभी न मांडे पड़वा, कोलाहल में इकतारे पर एक धुन गुंजवाई घाटी मौसम ने रचते रहने की ऐसी हमें पढ़ाई पाटी 5. हवा ही शायद कोई एक हवा ही शायद इस चौराहे रोक गई है फिर फिर फिरे गई हैं आंखें रेत बिछी सी पलकों से बूंदें अंवेर कर रखीं रची सी हिलक-हिलक कर रहीं खोजती तट पर जैसे एक समंदर बरसों से प्यासी थी शायद धूप चाटती सोख गई है कोई एक हवा..... हुए पखावज रहे बुलाते गूंगे जंगल बज-बजती सांस हुई है राग बिलावल झूल गया झलमलता सपना झूले जैसे एक रोशनी बरसों से बोझिल थी शायद रात अंधेरा झोंक गई है कोई एक हवा..... थप थप पांवों ने थापी है सड़क दूब सी रंगती गई पुरुषा दूर को दिशा उर्वशी माप गई आकाश एषणा जैसे एक सफेद कबूतर होड़ बाज ही होकर शायद डैने खोल दबोच गई है कोई एक हवा ही शायद इस चौराहे रोक गई है |
6. छींटा ही होगा पीट रहा मन बंद किवाड़े देखी ही होगी आंखों ने यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती प्रश्नातुर ठहरी आहट से बतियायी होगी सुगबुगती बिछा बिछाये होंगे आखर फिर क्यों झर-झर झरे स्वरों ने सन्नाटों के भरम उघाड़े पीट रहा मन..... समझ लिया होगा पांखों ने आसमान ही इस आंगन को बरस दिया होगा आंखों ने बरसों कड़वाये सावन को छींटा ही होगा दुखता कुछ फिर क्या हाथों से झिटकाकर रंग हुआ दागीना झाड़े पीट रहा मन..... प्यास जनम की बोली होगी आंचल है तो फिर दुधवाये ठुनकी बैठ गई होगी जिद अंगुली है तो थमा चलाये चौक तलाश उतरली होगी फिर क्यों अपनी सी संज्ञा ने सर्वनाम हो जड़े किवाड़े पीट रहा मन बंद किवाड़े 7. झिरमिर धूप झरी वे सब कहां उड़ीं एक चिड़ी ने जंगल-जंगल जा आ आकार एक पेड़ पर लाये तिनके रखे बिछा कर रसमस माटी रसमस तन मन रूप रचाये सांसें पी-पी चोंचें चहक पड़ीं दाने चुग-चुग बांट निहोरे सांझ सवेरे फड़-फड़ फुद-फुद पाटी पढ़कर पंख उकेरे नीले-नीले आसमान से रंग ली आंखें झुरमुट हिलका झिरमिर धूप झरी गुन-गुन गूंजी शाख-शाख ज्यों एक शहर हो भरी उड़ानें बरसों जैसे एक पहर हो कोने बैठी हवा न जाने तमक गई क्यों काली-पीली आंधी हुए झड़ी सावन एक सिपाही जैसा छत पर आकर मटिया-मटिया राख फेंक दी गुर गुर्राकर बिजुरी कड़-कड़ पैने दांतों पीस गई सब गीतों जैसी वो बस्ती उजड़ी वे सब कहां उड़ीं 8. अपराधी किससे करूं शिकायत मेरा हिरना मन अपराधी ओ अलगोजे आलाप उठे तुम तो रागों के मानसून बह गए दिशाओं , मेरी ही #तृष्णा पी गई स्वरों के सात समंदर किससे करूं शिकायत मेरा हिरना मन अपराधी ओ शिखरों के सूरज कोलाहल के पांवों उतरे तुम गली-गली में आंज गए उजियारा बंद किवाड़े किये रही मेरी ही घाटी किससे करूं शिकायत मेरा हिरना मन अपराधी पोर-पोर से दुनिया रूप गए तुम तो माटी के आंगन फेर गई उलटी हथेलियां मेरी पुरवा-पछवा किससे करूं शिकायत मेरा हिरना मन अपराधी दे गए मुझे तुम पीपल से कागज झलमलती स्याही मोर पांख दे गए लेखने बरफ़ हो गई लिखने से पहले मेरी ही भाशा किससे करूं शिकायत मेरा हिरना मन अपराधी 9. तपाया करूं ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं पीठ दे ही गई जब क्षितिज की दिशा आवाज़ क्यों दूं उसे उसी के लिए फिर हरफ़ क्यों घड़ूं ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं सवालों के कपड़े पहन जब सड़क ही खड़ी हो गई सामने उसी पर चरण खोज के क्यों उठाऊं-धरूं ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं सीढ़ियों से उतर कर कुहरता ही हो जब धरम सूर्य का फिर उजालों में मिलते अंधेरों की किससे शिकायत करूं क्यों उसी धूप से आंख खोलूं भरूं ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं हाथ पर हाथ ही जब सुलगता हुआ एक चुप रख गए, इसी आग से और कितनी उमर सिर्फ़ झुलसा करूं किसी और शुरूआत की एषणा ही तपाया करूं ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं 10. एषणा पर कैसे पैबंद लगाऊं जिस कैनवास पर अगले क्षण तस्वीर उजलनी थी वह कौन हवा थी यहां-वहां से गुमसुम लीक गई फट गई एषणा पर कैसे पैबंद लगाऊं लिखनी थी जिनसे अगले ही क्षण अर्थवती पोथी वे कौन जुबानें थीं दरवाजे रख गई पत्थरों की भाशा कागज के नर्म कलेजे पर कैसे हरफ़ बिछाऊं होनी थी जिनसे अगले ही क्षण क्षितिजों छूती धरती कैसी थी दीवारें पथ काट गई मन के मन बांट गई अजनबी हुई संज्ञाएं कौन स्वरों आवाजूं कैसे पैबंद लगाऊं 11. वे ही स्वर वे ही स्वर वे ही मनुहारें वही वही दस्तक ड्योढ़ी पर वही वही अगवाता आंचल वह आंगन वे ही दीवारें वही ख्याल खिलौने वे ही वे मौसम वे ही पोशाकें वही उलहना वे तकरारें वही लाज घेरें मृग छौने सिके वही चंदोवा रोटी वही निवाला वे मनुहारें वही वही हठियाये चेहरे बहला लेती वही हक़ीक़त वही गोद वे सगुन उतारें वही वही निंदियाये आंखें थपके वही गोत सिरहाने वे ही स्वर वे ही हिलकारें वही तक़ाजों का दरिया है वही नाव है कोलाहल की वे हिचकोलें वे पतवारें यह दुनियां यादों को दे दें चुप का चौकीदार बिठा दें क्या बतियायें किसे पुकारें? 12. तुम ओ तुम गीत ही बुनता रहा आंगन तुम्हारी आहटों से गूंज के गले में गुमसुम बांध कर गए तुम ओ तुम दिशा ही तो देखती रही आंखें तुम्हीं से सूरजमुखी लरज़ता उजले क्षितिज का एक सपना धुंधवा कर गए तुम ओ तुम तुम्हीं से हां तुम्हीं से रेखा किए दुखते फलक पर शोर का संसार रंगों से भरी हथेलियों पर ठंडी आग का हिमालय रख गए तुम ओ तुम किससे भरूं कैसे भरूं यात्रा में आई दरारें कैसे टांक लूं पैबंद फट गई तितीर्शा पर पिरो तो लूं कभी विरासत में बची नंगी सुई सूत भर सम्बन्ध भी संवेट कर ले गए तुम ओ तुम 13. गलत हो गया एक और तलपट गलत हो गया डैने खोल गुमसुम दो पहर पहले उठा पसरा रास्ते को काट दूरियां लीकता सिलसिला रूक गया हुआ कुछ भी नहीं सफ़र से समय का गुणनफल गलत हो गया दिशाओं-दिशाओं गई एषणा आ जुड़े पंक्तियां रोशनी के आकार की हुआ कुछ भी नहीं आकाश उतरा अंधेरा ठर गया पत्थरों को उकेरा किये हाथ सांस होती रही हवा आग-पानी पांव रच-रच गए रेत उतरे बिखेरू अड़-अड़ गए छितरा गए, एक-एक क्षण पी गए हुआ कुछ भी नहीं उम्र का एक और तलपट गलत हो गया 14. जिज्ञासा
15. होना पड़ा
16. टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे
17. मितवा
18. सड़क
20. आवाज़ दी है
21. इन्हें
22. रोशनाई लिये
23. ओ दिशा
24. धूपाएं
25. क्या तोड़ गए
26. हरफ़ों के पुल
27. मैं भी लूं
28. सांकलें काटने
29. रचनाएगी
बकलम हरीश भादानी
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हरीश भादानी आडी तानें सीधी तानें |
सन्नाटे के शिलाखंड पर सुलगते पिण्ड |
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